एक दिन परमवीर चक्र विजेता शहीद कैप्टन मनोज पाण्डेय के माता-पिता के साथ, मां बोलीं- सपना अधूरा रह गया, काश मनोज के साथ यहां आ पाती

‘‘मैं इतना इमोशनल तो नहीं हूं, पर मैं आपसे मिलकर बहुत इमोशनल हो गया। ये मेरे लिए बहुत गौरव की बात है कि आपसे इस डिफेंस एक्सपो में मुलाकात हुई।’’ अर्नब चटर्जी चौंकते हुए बोले। उनके सामने परमवीर चक्र विजेता कैप्टन मनोज पाण्डेय के पिता गोपीचंद पाण्डेय और मां मोहिनी खड़ी थीं। अर्नब कैप्टन मनोज पाण्डेय के प्लाटून के साथी रहे हैं। कैप्टन मनोज पाण्डेय के माता-पिता हमारे साथ डिफेंस एक्सपो की सैर पर थे।


डिफेंस एक्सपो में दाखिल होते ही मिग-21 शान से खड़ा था। लोग उसके अगल-बगल, आगे-पीछे खड़े होकर फोटो खिंचा रहे थे। तब शहीद कैप्टन मनोज पाण्डेय की मां मोहिनी को उनके बीच के दो जवान याद आ गए। मोहिनी कहती हैं- ‘‘मनोज के दो साथी थे चेतन और मयूर मयंक। दोनों जगुआर से अंबाला से उड़े थे। एक ही जहाज में दोनों थे और वह पहाड़ियों में कहीं क्रैश हो गया था। दोनों ही शहीद हो गए थे। उसमें से एक बच्चा तो कन्नौज का था। दोनों मनोज के जूनियर थे। मयूर को तो बेस्ट पायलट का अवार्ड भी मिला था। अभी 2002 की ही तो बात है।’’


थोड़ी दूर चलते ही चीता हेलिकॉप्टर देख कर दोनों रोमांचित हो उठे। बोले- ‘‘एनडीए के दौरान जब हम मनोज के पास जाते थे तो ऐसे ही वहां भी डेमो वगैरह खड़े रहते थे। हम लोग निशान देख कर समझ जाते हैं कि वह कौन सा हथियार है।’’ पिता गोपीचंद्र ने बताया कि मनोज ने मां को हेलीकाॅप्टर में बिठाया भी था। तोपों को देख कर मां बोलीं, ‘आप लोगों को लगता होगा कि यह बहुत धीरे चलती है। लेकिन हम लोगों ने देखा है यह बहुत तेज भागती है। इसको इसी तरह से डिजाइन किया गया है। हम लोग अभी 15 जनवरी को सेना दिवस पर दिल्ली गए थे। हमें सेना से बुलावा आया था। वहां हमने इन तोपों को चलते हुए देखा। ये तो पहाड़ियों पर भी चढ़ जाती हैं।’’


गोपीचंद कहते हैं, ‘‘मनोज कभी हम लोगों से आर्मी की बात नहीं करता था। न ही कभी बताता था कि कौन सी गन लेकर चलता है... वहां क्या-क्या करता है... घर पर आकर टीशर्ट और हाफ पेंट में बच्चों में रम जाता था। वह बचपन से ही पढ़ने में होशियार था। सैनिक स्कूल में पहुंचने पर उसके मन में सिर्फ और सिर्फ सेना में जाने का मकसद था, जिसे उसने पूरा किया।’’


हम आगे बढ़ रहे थे कि अचानक से एक सूटेड-बूटेड रौबदार व्यक्ति सामने से अपनी फैमिली के साथ आकर हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और अपना परिचय देते हुए बोला- मैं कर्नल आलोक... क्या आप कैप्टन मनोज पाण्डेय के माता-पिता हैं। हां में जवाब सुनते ही वे खुश हो गए और परिवार का हाल-चाल पूछने लगे और जाते हुए पूरा एक्सपो घुमने की ताकीद भी करते गए। इस दौरान मनोज की मां का हाथ अपने हाथों में पकड़े रहे जैसे उनकी अपनी मां हो। आगे बढ़ते ही मां मोहिनी कहती हैं कि मेरा बेटा चला गया, लेकिन ये सम्मान कमा कर गया है। हमें उस पर गर्व है। यह भी कहती हैं कि मनोज ने अपने ओहदे का कभी फायदा नहीं उठाया। भीड़ की वजह से हमें जैसे अभी बताना पड़ा ना कि हम कैप्टन मनोज पाण्डेय के माता-पिता हैं, लेकिन अगर मनोज होते तो वह यहां से वापस लौट गए होते, लेकिन अपना परिचय नहीं देते। वह नहीं चाहते थे कि उनकी वजह से किसी आम आदमी को तकलीफ हो या उसे किसी हीन भावना से ग्रसित होना पड़े। वह कहते थे कि सेना का कार्ड बड़ी मुश्किल से मिलता है। और उससे भी बड़ी बात यह कि सबको नहीं मिलता है। इसका सम्मान रखना चाहिए।’


ग्राउंड का लंबा चक्कर लगाते हुए हम लोग हॉल नंबर-4 में पहुंचे, जहां सेना की वर्दी पहने एक पुतला खड़ा था। मां मोहिनी उसे एक टक निहारती रहीं, फिर नम आंखों से कहती हैं ‘बेटे को वर्दी में देखने का सपना था जो अब ताउम्र नहीं पूरा हो सकेगा। वह जब घर आता तो कभी वर्दी नहीं पहनता। न ही वहां की बातें ही बताता। अभी कई सपने थे। बच्चे की शादी होनी थी। उसके बच्चे देखने थे। सब ख्वाहिशें अधूरी रह गईं।


हम उस वक्त सुंदरम इंडस्ट्रीज प्राइवेट लिमिटेड के स्टाल पर खड़े थे, जहां मनोज के छोटे भाई मनमोहन के कलीग भी खड़े थे। उन्होंने स्टाल के मालिक अर्नब से परिचय कराया तो अर्नब भावुक हो गए। उन्होंने बताया कि वह और मनोज दोनों एक ही प्लाटून के साथ थे। मनोज सीनियर थे। मुझे नहीं मालूम था कि मैं आपसे कभी मिल पाऊंगा। यह मेरे लिए गौरव की बात है। मैं आपके साथ एक पिक्चर लेना चाहता हूं। इस बातचीत के दौरान मनोज के माता-पिता की आंखें भी नम हो रही थीं।एक स्टॉल पर बंदूक देख गोपीचंद कहते हैं कि ‘घर में सिक्यूरिटी रीजन की वजह से बंदूक तो है, पर कभी चलाई नहीं। न ही कभी शौक रहा। दिल्ली के प्रगति मैदान का डिफेंस एक्सपो भी देखा है। सेना के कई कार्यक्रमों में शिरकत की, जहां बड़े-बड़े हथियारों की प्रदर्शनी देखी। पर हर बार सोचता हूं कि मनोज के साथ ऐसी जगहों पर घूमता तो मजा कुछ और होता। बेटा वर्दी में होता और हम उसके बगल में होते। पर दो साल की नौकरी में वह इतना कुछ कर गए कि जब तक सेना रहेगी मनोज का नाम भी रहेगा। बड़े-बड़े अधिकारी बोलते हैं कि मनोज होते तो जनरल की रैंक से रिटायर होते।’